मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

Khud hee par..

बहुत दिन हुए, के पतझड़ नही बीता;
बड़े दिनो से है मन भी मेरा रीता ;
कब से पुरवा ने भी इधर रुख़ नही किया;
के धूप में है मन मेरा जला किया.

बरखा भी बरसती नही है
मृगतृष्णा है के हटती नही है
ख्वाबों पे जम गयी है बर्फ सी
ना आती है जां ना है निकलती

ज्यों ज्यों बर्फ की परतें बढ़ती हैं
ख्वाबों पर बोझ बदता जाता है
अपने ही पाँव बोझिल लगते है
अपना ही दिल भर सा आता है

एक किरण चमकी है आज कहीं
एक बयार चली है सासों में
मुझको भी जीना है कहकर
एक ख्वाब जगा है परतों में

बच्चा सा है ख्वाब मेरा
ऐसे तो नही घबराएगा
कुछ बदमाशी करके वो भी
रीता सा मन भर जाएगा

कोई टिप्पणी नहीं: