जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पैर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला
जिस दिन मेरी चेतना जागी मैने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पैर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दें लें में,
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भॉँच्चका सा --
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊं किस जगह?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैने भी बहना शुरू किया इस रेले में;
क्या बाहर की तेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का उहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा वही मन के अंदर से उबल चला
जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला
मेला जितना भड़कीला रंग रंगीला था
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी
उतनी ही छोटी अपने कर की झोली थी
जितना ही बिर्मे रहने की थी अभिलाषा
उतना ही रेले तेज़ धकेले जाते थे
क्रय-वि क्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है
ये तो भागा भागी की छीना जोरी थी
अब मुझ से पूछा जाता है क्या बतलाऊं
क्या मैं akinchan बिखराता पाठ पर आया
वह कौन रतन अनमोल ऐसा मिला मुझको
जिस पर अपना मान प्राण nichaavar कर आया
ये थी तक़दीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना वो मिट्टी निकली
जिसको समझा था आँसू वो मोती निकला
जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला
मैं जितना ही भूलुँ bhtkoon या भरमाऊं
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है
कितने ही मेरे पाँव पड़ें उँचे नीचे
प्रति पल वो मेरे पास चली ही आती है
मुझ पर विधि का अहसान बहुत सी बातों का
पर मैं kritgy उसका इस पर सब से ज़्यादा --
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती
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रविवार, 11 फ़रवरी 2007
Agnipath - Dr Harivansh rai bachchan
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
वृक्ष भले हों खड़े
हो घने हो बड़े
एक पत्र छह भी
माँग मत, माँग मत, माँग मत
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
तू ना थक़ेगा कभी
तू ना थमेगा कभी
तू ना mudega कभी
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
ये महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अशरु स्वेद रक्त से
लथपथ, लथपथ, लथपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
वृक्ष भले हों खड़े
हो घने हो बड़े
एक पत्र छह भी
माँग मत, माँग मत, माँग मत
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
तू ना थक़ेगा कभी
तू ना थमेगा कभी
तू ना mudega कभी
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
ये महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अशरु स्वेद रक्त से
लथपथ, लथपथ, लथपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
Raat aadhi.. Dr. Harivnash Rai bachchan
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2007
Original sound track - Bharat ek khoj
For those who don't know about the background of the following lines.
This was the sound track of Doordarshan serial " Bharat ek khoj" based on Pdt. Nehru's book " Discovery of India".
Some parts of the below lines are from Rigveda..
सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भीं नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने ढका था
उस पल तो आगम, अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन है करता
करता है वा अकर्ता
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वहीं सचमुच में जानता..या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता, नहीं पता,
नहीं है पता, नहीं है पता
वह था हीरणयगर्भ सृष्टि से पहले विद्यामान
वही तो सारे भूत जात का स्वामी महान
जो है अस्तित्वामान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
जिस के बल पर तेज़ोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भारी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे उपर
जगा चुके वो का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
ओम ! सृष्टि निर्माता स्वर्ग रचीयता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बहू जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करे हम अवी देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करे हम अवी देकर
This was the sound track of Doordarshan serial " Bharat ek khoj" based on Pdt. Nehru's book " Discovery of India".
Some parts of the below lines are from Rigveda..
सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भीं नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने ढका था
उस पल तो आगम, अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन है करता
करता है वा अकर्ता
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वहीं सचमुच में जानता..या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता, नहीं पता,
नहीं है पता, नहीं है पता
वह था हीरणयगर्भ सृष्टि से पहले विद्यामान
वही तो सारे भूत जात का स्वामी महान
जो है अस्तित्वामान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
जिस के बल पर तेज़ोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भारी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे उपर
जगा चुके वो का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अवी देकर
ओम ! सृष्टि निर्माता स्वर्ग रचीयता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बहू जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करे हम अवी देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करे हम अवी देकर
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