सोमवार, 12 फ़रवरी 2007

In conversation with God.. Aarambh se ant tak.

आरंभ .. एक अंश का..
मैं अंश .. हूँ तेरा
तू ना माने .. मैं मानती हूँ
तू ना जाने .. मैं जानती हूँ
एक दिन मिला था तू मुझे!!!
कुछ मिला .. तेरा साथ
कुछ बना .. एक सपना
कुछ टूटा .. एक ख़याल
कुछ छूटा .. एक हिस्सा
कुछ साथ ..बस यादें
कुछ यादें .. एक हँसी
कुछ यादें ..एक दर्द
कुछ पल .. एक जीवन
एक जीवन मैं .. तेरा ही
तू ना माने .. मैं मानती हूँ
तू ना जाने .. मैं जानती हूँ
मैं भी मिलूंगी एक दिन तुझ में

अंत ...
या कहें अनंत
एक अंश तेरा

रविवार, 11 फ़रवरी 2007

Jeevan ki aapa dhapi - Dr Harivansh rai bachchan

जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पैर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला

जिस दिन मेरी चेतना जागी मैने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पैर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दें लें में,

कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भॉँच्चका सा --
गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊं किस जगह?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैने भी बहना शुरू किया इस रेले में;

क्या बाहर की तेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का उहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा वही मन के अंदर से उबल चला

जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला

मेला जितना भड़कीला रंग रंगीला था
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी
उतनी ही छोटी अपने कर की झोली थी

जितना ही बिर्मे रहने की थी अभिलाषा
उतना ही रेले तेज़ धकेले जाते थे
क्रय-वि क्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है
ये तो भागा भागी की छीना जोरी थी

अब मुझ से पूछा जाता है क्या बतलाऊं
क्या मैं akinchan बिखराता पाठ पर आया
वह कौन रतन अनमोल ऐसा मिला मुझको
जिस पर अपना मान प्राण nichaavar कर आया

ये थी तक़दीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना वो मिट्टी निकली
जिसको समझा था आँसू वो मोती निकला

जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला

मैं जितना ही भूलुँ bhtkoon या भरमाऊं
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है
कितने ही मेरे पाँव पड़ें उँचे नीचे
प्रति पल वो मेरे पास चली ही आती है

मुझ पर विधि का अहसान बहुत सी बातों का
पर मैं kritgy उसका इस पर सब से ज़्यादा --
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती

Agnipath - Dr Harivansh rai bachchan

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
वृक्ष भले हों खड़े
हो घने हो बड़े
एक पत्र छह भी
माँग मत, माँग मत, माँग मत
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

तू ना थक़ेगा कभी
तू ना थमेगा कभी
तू ना mudega कभी
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

ये महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अशरु स्वेद रक्त से
लथपथ, लथपथ, लथपथ
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

Raat aadhi.. Dr. Harivnash Rai bachchan

रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2007

Longing......

शाम के धुंधलके में गुज़रते पल
हर उस पल, गयी धरती जल.
जाड़े की dhundh से ढकी
इंतज़ार में उसका कल..

कब मिलेगी आसमान से!!
दिन एक और गया ढल.
बिरहा की आग में फिर,
एक बार गयी और पिघल

उम्मीद में है शायद,
तभी धड़कटा है उसका दिल.
कभी तो होगा मिलन
कभी तो आएगा वो कल.

कोई तो बताए मूरख को
क्यों हैं इतनी विहवल
ख़ुद आगोश में है उसके
जिसके इंतज़ार में जलती पल पल

ख़ुद में समाए धरती को
हर शाम आसमान गया पिघल.
ना चैन मिले, ना आराम
उस पर ये वक़्त चंचल

ख़ुद में समेटे है vyom सारा
फिर भी किस काम का ये बल
जलती है धरती जब
ख़ुद बरखा में जाता गल

जलती धरती को आराम मिले
बरस गये ये सोच के बादल
दोनो की उम्मीद एक ही
कभी तो जाएगा वक़्त बदल

कोई बताए, कैसा है प्यार ये ,
साथ हैं पर नही पाते मिल
आगोश में हैं एक दूजे के,
फिर भी रहते हैं विकल

कर्तव्य निभाए जाते दोनो
कभी तो मिलेगा इसका फल
जी गये ... जल भी गये
शायद हो जाए प्यार सफल

नीली आँखें.....

जब देखी वो नीली आँखें..
क्या देखूं उनमें..समझ ना पाई
देखू उनमें नीला खुला आसमान
या नीले सागर की गहराई..

उनमें फैले सपने देखूं..
या देखूं गमों की परछाई
नीली रोशनी अंधेरी रातों की!
या बरखा की नीली बदराई

जशन मनाती मौत दिखी
और ज़िदगी लेती अंगड़ाई
ख़ामोशी थी कितनी उनमें,
फिर भी वो कितना बतियाई

दो बूँदे छलकाई जब,
बिन बोले कितनी झल्लाई
समेट कर वो बूँदे बना दी
मेरी कलम की नीली स्याही ..