शाम के धुंधलके में गुज़रते पल
हर उस पल, गयी धरती जल.
जाड़े की dhundh से ढकी
इंतज़ार में उसका कल..
कब मिलेगी आसमान से!!
दिन एक और गया ढल.
बिरहा की आग में फिर,
एक बार गयी और पिघल
उम्मीद में है शायद,
तभी धड़कटा है उसका दिल.
कभी तो होगा मिलन
कभी तो आएगा वो कल.
कोई तो बताए मूरख को
क्यों हैं इतनी विहवल
ख़ुद आगोश में है उसके
जिसके इंतज़ार में जलती पल पल
ख़ुद में समाए धरती को
हर शाम आसमान गया पिघल.
ना चैन मिले, ना आराम
उस पर ये वक़्त चंचल
ख़ुद में समेटे है vyom सारा
फिर भी किस काम का ये बल
जलती है धरती जब
ख़ुद बरखा में जाता गल
जलती धरती को आराम मिले
बरस गये ये सोच के बादल
दोनो की उम्मीद एक ही
कभी तो जाएगा वक़्त बदल
कोई बताए, कैसा है प्यार ये ,
साथ हैं पर नही पाते मिल
आगोश में हैं एक दूजे के,
फिर भी रहते हैं विकल
कर्तव्य निभाए जाते दोनो
कभी तो मिलेगा इसका फल
जी गये ... जल भी गये
शायद हो जाए प्यार सफल
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2 टिप्पणियां:
ख़ुद में समेटे है vyom सारा
फिर भी किस काम का ये बल"
maza aa gaya ye padkhar, ab lagta hai kush ke jaisa likh rahi ho. good keep it up
baap re baap. hai to acha yeh wala. tumne likha hai kya? agar haan? to waakai acha hai. agar na? to b acha hai jisne b likha ho
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