बुधवार, 31 जनवरी 2007

याद एक छुट्टी की -

चॉख़ट पकड़े खिड़की की ,
धूप बाहर को लटकी सी ,
पास की भट्टी, ताज़ी आग से भरी
मूंगफली की महक बहाती थी.

आँगन में दादी, माँ से बतियाती
नाचती हथेलियाँ, खनकती चूड़ियाँ, जवें बनाती
गूँजती दादा की आवाज़ आती..." मैं निकलता हूँ भाई


शाम को हाट में जाना है , बता दो क्या क्या सौदा लाना है
नौकर आकर पर्चा थमाता
जनेऊ संभालते बाबा को कुछ याद आता

छड़ी घूमते, ख़ुद बतियाते, उपर आते..
गंभीर शकल में बद माशी छुपाते
सर-हाने मेरे छड़ी उठाते और गुड़गूदी मचाते
"भोंधू भाई उठ जाओ, कभी तो हमसे भी बतियाओ"

आवाज़ दोनो की घर को गूँजाती
सब से बेख़बर कज़ियारी
धूपे में मसाले सुखाती
लाल पत्थर के खंबों से झाँकती तुलसी
दादी के जलाए दिए को हवा से बचाती

कुछ tutlaati मैं भी आती
माँ जी 'भापा' करके चिल्लाती
दादी के लाड प्यार में मेरा
नखरा भर-भर चलता था
बिन दातून, बिन मुह धोये भी
सब कुछ खाना मिलता था

आस पास में सभी दादी, ताई बन जाती
शाम को दादी मेरी रोज़ मुझे सजाती थी
वो हरा सा lahnga मेरा, वो चाँदी के जेवर सारे
पहना कर दादी मुझको, पल्लू में हँसती छुपाती थी

सात बजे शाम को रात आधी लगती थी
अधूरी कहानी पिछले दिन की
दादी फिर पूरी करती थी
आधी कहानी फिर से एक बार,
अगले दिन के लिए बच जाती थी.

2 टिप्‍पणियां:

कुश ने कहा…

great words manishi

Dutta Sujeet ने कहा…

Shayad yeh kavita aaj se 20 saal pahle badi ki baatein dhyan mein rakhkar likhi hai tumne? Daatun, Chandi ke jewar Praasangik nahi lagte aaj ke yug mein